हाल ही में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने जेल सुधारों की दिशा में एक बड़ा और ऐतिहासिक कदम उठाते हुए, जेलों में कैदियों को जाति के आधार पर काम आवंटित करने की प्रथा को असंवैधानिक घोषित कर दिया। यह निर्णय सुकन्या संथा बनाम भारत संघ और अन्य मामले में सुनाया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कई राज्यों के जेल मैनुअल्स में शामिल जाति आधारित भेदभावपूर्ण प्रावधानों को खारिज कर दिया। कोर्ट ने इस प्रथा को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 17, 21 और 23 का उल्लंघन बताया, जो समानता, भेदभाव का निषेध, अस्पृश्यता का उन्मूलन, जीवन का अधिकार और शोषण से सुरक्षा जैसे मौलिक अधिकारों की गारंटी देते हैं।
यह फैसला न केवल जेल सुधारों की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है, बल्कि यह भारत के न्यायिक प्रणाली में कैदियों के अधिकारों और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए एक मजबूत संदेश भी है। जेलों में जाति आधारित काम आवंटन की प्रथा लंबे समय से चली आ रही थी, जो समाज में व्याप्त जातिवाद का प्रतिबिंब है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने इस भेदभावपूर्ण प्रथा को समाप्त करने का आदेश दिया है, जिससे देश में समानता और न्याय की भावना को बढ़ावा मिलेगा।
जाति आधारित भेदभाव पर सुप्रीम कोर्ट का रुख:
इस मामले के दौरान यह सामने आया कि कई राज्यों के जेल मैनुअल्स में ऐसे प्रावधान हैं, जिनके तहत कैदियों को उनकी जाति के आधार पर काम सौंपा जाता है। उदाहरण के तौर पर, तथाकथित ऊंची जातियों से संबंधित कैदियों को हल्के और सम्मानजनक कार्य दिए जाते थे, जबकि निचली जातियों के कैदियों को शारीरिक श्रम और सफाई जैसे अपमानजनक कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता था। इसके साथ ही, बैरकों का विभाजन और शारीरिक श्रम का वितरण भी जाति के आधार पर किया जाता था। यह प्रथा संविधान में निहित समानता के सिद्धांत के सीधे खिलाफ है।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस तरह का जाति आधारित भेदभाव न केवल असंवैधानिक है, बल्कि यह कैदियों के मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन है। कोर्ट ने इस भेदभाव को खत्म करने के लिए सख्त दिशा-निर्देश जारी किए हैं और सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपने जेल मैनुअल्स को तीन महीने के भीतर संशोधित करने का आदेश दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्देश:
सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले में जेलों में कैदियों के साथ जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए कई महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिए गए हैं:
- जेल रजिस्टर से जाति कॉलम हटाया जाएगा: सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि जेल प्रशासन कैदियों के रजिस्टर में जाति के कॉलम और जाति के किसी भी संदर्भ को हटा देगा। यह कदम इस बात को सुनिश्चित करेगा कि कैदियों के बीच जातिगत आधार पर कोई भेदभाव न हो और सभी कैदियों के साथ समान व्यवहार किया जाए।
- जेल मैनुअल्स में संशोधन: कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपने जेल मैनुअल्स को तीन महीने के भीतर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुरूप संशोधित करने का निर्देश दिया है। यह सुनिश्चित करेगा कि जेलों में काम का आवंटन केवल कैदी की क्षमताओं और कौशल के आधार पर किया जाए, न कि उसकी जाति के आधार पर।
- केंद्र सरकार के लिए दिशा-निर्देश: केंद्र सरकार को मॉडल जेल मैनुअल्स, 2016 और मॉडल जेल और सुधार सेवा अधिनियम, 2023 में आवश्यक बदलाव करने होंगे ताकि जाति आधारित भेदभाव को पूरी तरह से समाप्त किया जा सके। यह बदलाव जेल सुधारों के लिए एक व्यापक मॉडल तैयार करेगा, जो पूरे देश में लागू किया जाएगा।
विमुक्त जनजातियों (DNTs) और आदतन अपराधियों के बारे में:
इस फैसले के एक और महत्वपूर्ण पहलू के रूप में, सुप्रीम कोर्ट ने विमुक्त जनजातियों (Denotified Tribes – DNTs) और आदतन अपराधी वर्ग से संबंधित कैदियों के साथ होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार पर भी ध्यान दिया। विमुक्त जनजातियों (DNTs) और आदतन अपराधियों के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक महत्वपूर्ण कदम है। औपनिवेशिक काल में आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 के तहत इन समुदायों को अपराधी घोषित किया गया था। यह अधिनियम 1949 में निरस्त कर दिया गया और 1952 में इन समुदायों को ‘विमुक्त’ घोषित किया गया।
‘आदतन अपराधियों’ को संबंधित राज्यों के आदतन अपराधी अधिनियमों के तहत परिभाषित किया गया है, ताकि ऐसे व्यक्ति को वर्गीकृत किया जा सके जिसे कई अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया हो और जिसे समाज के लिए खतरा माना जाता हो। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जेल मैनुअल में आदतन अपराधियों का संदर्भ संबंधित राज्य कानूनों की विधायी परिभाषाओं के अनुसार ही होना चाहिए।
2017 में इदाते आयोग ने राज्य सरकारों द्वारा लागू किए गए आदतन अपराधी अधिनियमों को तुरंत निरस्त करने की सिफारिश की थी, क्योंकि ये कानून इन समुदायों के सदस्यों के उत्पीड़न का कारण बनते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सामाजिक और कानूनी प्रभाव:
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय न्यायिक प्रणाली में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगा। जेलों में कैदियों के साथ जाति के आधार पर किए जा रहे भेदभाव को समाप्त करना न केवल मानवाधिकारों की सुरक्षा की दिशा में एक बड़ा कदम है, बल्कि यह भारत के संविधान में निहित समानता और न्याय के सिद्धांतों को भी सुदृढ़ करता है। इससे कैदियों को न्यायपूर्ण और समान व्यवहार मिलेगा, और जेलों में सुधार की प्रक्रिया को एक नई दिशा मिलेगी।
इस फैसले का प्रभाव न केवल कानूनी, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी व्यापक होगा। यह भारतीय समाज में जाति आधारित भेदभाव और असमानता को खत्म करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। जेलों में कैदियों के साथ समानता का व्यवहार, समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय न्यायिक प्रणाली में जेल सुधारों की दिशा में एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी कदम है। जाति के आधार पर काम आवंटन की प्रथा को समाप्त कर, कोर्ट ने भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद के खिलाफ एक सख्त संदेश दिया है। यह निर्णय न केवल कैदियों के अधिकारों की सुरक्षा करेगा, बल्कि भारत में एक न्यायपूर्ण और समान समाज की स्थापना की दिशा में भी महत्वपूर्ण योगदान देगा।
FAQs:
आदतन अपराधी कौन होते हैं और उन्हें कैसे परिभाषित किया जाता है?
आदतन अपराधी उन व्यक्तियों को कहा जाता है जिन्हें कई अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया हो और जिन्हें समाज के लिए खतरा माना जाता है। उन्हें संबंधित राज्यों के आदतन अपराधी अधिनियमों के तहत परिभाषित किया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार जेल मैनुअल में क्या बदलाव किए जाएंगे?
सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को तीन महीने के भीतर अपने जेल मैनुअल्स में संशोधन करना होगा, जिसमें कैदियों के रजिस्टर से जाति के कॉलम को हटाने और काम का आवंटन उनकी क्षमताओं के आधार पर करने का प्रावधान शामिल है।
इदाते आयोग की सिफारिशें इस फैसले से कैसे जुड़ी हैं?
2017 में इदाते आयोग ने राज्य सरकारों द्वारा लागू किए गए आदतन अपराधी अधिनियमों को तुरंत निरस्त करने की सिफारिश की थी, क्योंकि ये कानून इन समुदायों के सदस्यों के उत्पीड़न का कारण बनते हैं।